मनुष्य नम्रता से महान बनता है, अहंकार से नहीं। इसके अतिरिक्त मनुष्य आचरण से भी महान बनता है। शांति प्राप्त करने तथा जीवन को पूर्ण बनाने के लिए किताबों का कीड़ा बनने की आवश्यकता नहीं। ईश्वर के साक्षात्कार के लिए भी पुस्तकों का पंडित बनने की ज़रूरत नहीं। निर्गुण संत कवि कबीर ने ठीक ही कहा है –
पोथा पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ॥
जो निरक्षर हैं अथवा कम पढ़े हैं वे भी जीवन की पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं तथा परमात्मा का दर्शन कर सकते हैं। पुस्तकों का अध्ययन आजकल तेजी से बढ़ता जा रहा है। नये नये ग्रंथ प्रकाशित होते रहते हैं और अनेक पुस्तकालय खुलते जाते हैं। यह सब मनुष्य के बौद्धिक विकास के लिए आवश्यक है। किन्तु क्या इससे मनुष्य पूर्ण या मुक्त बन सकता है? ज्ञान की विविध शाखाओं का विकास हो रहा है फिर भी मानव अभी मानव नहीं बना। मनुष्य की बर्बरता घटी नहीं वरन बढती ही जा रही है। स्वार्थ एवं सत्ता का प्यासा इन्सान संसार में भटक रहा है। इसके अनेक कारण हैं किन्तु प्रधान कारण यह है कि विचार एवं आचार में साम्य नहीं रहा। मनुष्य जिसे सच्चा या अच्छा समज़ते है उसका आचरण नहीं करते। इसीलिए जीवन में सामंजस्य नहीं है।
जीवन को सुखी, शांत, एवं समृद्ध बनाने के लिए पांडित्य या ज्ञान की आवश्यकता नहीं है वरन हमारे पास जो ज्ञान है उसका प्रयोग करने की है। मस्तिष्क के ज्ञान की अपेक्षा आचरण का मूल्य अधिक है। अतः साधकों को मेरी यह सलाह है कि पुस्तक पंडित बनने का मोह छोड़ दें तथा शास्त्रार्थ और वितंडावाद से दूर रहें। अपने समाधान एवं काम के लिए आवश्यक ज्ञान अवश्य प्राप्त कीजिए लेकिन उसका गर्व मत करिए और उसे सब कुछ मानकर उसमें ही मत डूब जाइए। साधना एवं आचरण की ओर अधिक ध्यान दीजिए तथा अलप्ता को समाप्त करके बंधनों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए सख्त़ परिश्रम कीजिए। गीतामाता भी यही शिक्षा देती है। उसका कथन है, “हे मानव, सच्चा ज्ञान किसी ग्रंथ या पुस्तकालय में नहीं अपितु तेरे भीतर है। तेरे भीतर जो परम पवित्र परमात्मा बैठे हैं वही ज्ञान का परिपूर्ण स्वरुप हैं। शांति, मुक्ति तथा पूर्णता भी वही है। अतः उसका ही साक्षात्कार कर। अपने भीतर गहराई में उतर और परमात्मा का दर्शन कर। ऐसा करने से तू मुक्ति एवं शांति का स्वरुप बन जायगा। जिसने शांति व मुक्ति की परम दशा प्राप्त कर ली, वही सच्चा पंडित है और ज्ञानी भी वही है।
ऐसे उत्तम आचरण वाले पंडित या ज्ञानी सब कार्य यज्ञ भावना से प्रेरित होकर करते हैं। उनका छोटे से छोटा काम भी यज्ञ भावना से होता है। वे ईश्वर की एवं उसके संसार की प्रसन्नता के लिए कर्म करते हैं। उनके कर्म पवित्र होते हैं, जिनमें लोभ, स्वार्थ या दूसरे के अहित की भावना नहीं होती। ऐसे कर्म उसकी चित्तशुद्धि में सहायक होते हैं। कर्म करनेवालों को चित्तशुद्धि की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। जिस प्रकार साबुन से कपड़े का मैल दूर हो जाता है, उसी प्रकार उचित कार्य करने से मन का मालिन्य चला जाता है। आदमी अधिक से अधिक अच्छे व स्वच्छ कपड़े पहनने का आग्रह रखता है, इसी प्रकार वह यदि मन को अधिकाधिक निर्मल या चिरत्र को अधिकाधिक शुद्ध रखने का आग्रह रखे तो सोने में सुहागा लग जाय। दूसरे लोगों का पथप्रदर्शन करने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है उनको अपने चारित्र्य की विशुद्धि की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए। साधकों को भी चाहिए कि वे मन की शुद्धि को महत्वपूर्ण समजें। बाहर से तो आचार व्यवहार सरल और निर्मल होना ही चाहिए, मन के भीतर से भी कपट, दंभ और कुवासनाओं को निकाल देना चाहिए। साधना के क्षेत्र में उन्नति करने के लिए मन की शुद्धि का कार्य महत्वपूर्ण है। ऐसी शुद्धि हासिल करने के लिए गीता में विशेष कर्म का उलेख है। उन्हें विकर्म माना जाता है। इन सब विविध कर्मों या कर्ममय यज्ञों का वर्णन गीता करती है।
कुछ लोग प्राणायाम करते हैं, मौन रखते हैं, मिताहारी बन जाते हैं, नीरव स्थलों में निवास करते हैं और इस प्रकार विभिन्न तरीकों से अपनी शुद्धि और उन्नति करने के लिए यज्ञ का आश्रय लेते हैं। कुछ यज्ञ ऐसे होते हैं जिनमें विविध द्रव्य अर्थात साधनों की आवश्यकता होती है। विशेषतः आजकल जो यज्ञ होते हैं वे पैसे के बिना नहीं हो सकते। संन्यासी एवं त्यागी भी ऐसे यज्ञ करते हैं, करवाते हैं और ब्राह्मणों को दक्षिणा में पैसे देते हैं। यह बात विचित्र जान पड़ती है और अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसे संन्यासी भी शास्त्रों के आदेश के नाम पर ही यज्ञ करते या करवाते हैं। लेकिन मैं पूछता हूँ कि धन का वितरण करने और श्रीमंतों से धन मांगने का आदेश किस शास्त्र ने दिया है? यदि शास्त्र की आज्ञा का पालन करना ही चाहते हो तो उसका पूरा पूरा पालन करो। सुविधा के अनुसार आज्ञा का पालन करने का क्या अर्थ है? हां तो प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या संन्यासी यज्ञ नहीं कर सकते? अवश्य कर सकते हैं। किन्तु वे यज्ञ द्रव्यमय नहीं होना चाहिए, उसमें थैली भरे रूपये लेकर व्यासपीठ पर या यजमान पद पर बैठना नहीं है और न धन के लिए श्रीमंतों का सहारा ढूंढना है। संन्यासियों को तो ज्ञानयज्ञ करना है। गीतामाता की आज्ञा भी यही है कि उन्हें ऐसे प्रकार के यज्ञ का आश्रय लेना चाहिए। ऐसे यज्ञ का फल है परमात्मा का साक्षात्कार एवं परमात्मा में सदा के लिए प्रतिष्ठा।
गीता का उपदेश है कि द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अधिक श्रेष्ठ और कल्याणकारी है। अतः बुद्धिमान पुरुषों को उसका आश्रय लेना चाहिए। मौन रखनेवालों तथा प्राणायाम और मंत्रजप जैसी क्रियाएं करनेवालों को ध्यान रखना चाहिए की वे क्रियाएं जड़ या यंत्रवत न हो जाए। उनके पीछे विवेक का प्रेरणाबल होना चाहिए। ये क्रियाएं साधन हैं। उनके द्वारा जीवन की शुद्धि, आनंद की अनुभूति तथा परमात्मा की प्राप्ति होती है और इस प्रकार जीवन पूर्ण और मुक्त होता है। ज्ञानी पुरुष स्वयं यज्ञमय हो जाता है। उसका जीवन यज्ञ की वेदी के समान पवित्र हो जाता है। विवेक एवं ज्ञान की अग्नि उसमें निरंतर प्रज्वलित रहती है। उसे अन्य यज्ञों की आवश्यकता नहीं। गीता कहती है कि प्रत्येक पुरुष को इस भांति यज्ञमय हो जाना चाहिए। जीवन के सभी छोटे बड़े कर्म जीवन की पूर्णता के महान यज्ञ की आहुति के समान हो जाने चाहिए। मनुष्य के कर्मों एवं जीवन का ध्येय यह है कि उनके द्वारा अपने को पहचान ले, अपने भीतर स्थित परमात्मा को भी पहचान ले और संसार के रहस्य को जान ले। विविध कर्म साधना एवं उपासना इस महान ध्येय को हासिल करने के लिए ही है। परमात्मा की अनुभूति के लिए ही सारे साधन हैं। ज्ञान का मतलब सिर्फ जानना नहीं है। ज्ञान का अर्थ है जीवन में अनुभव करना एवं उसे व्यवहार में लाना। यह जीवन परमात्मा के दर्शन या स्वरुप की पहचान के लिए ही है और जीवधारी मनुष्य की इच्छा भी यही है। इच्छा पूर्ती होने पर जीवन में शांति, प्रकाश व पूर्णता व्याप्त हो जायगी
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)