Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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संसार के अधिकांश धर्म अब पुनर्जन्म या जीवन के सातत्व का विश्वास करते हैं। जो धर्म पहले इसे नहीं मानते थे वे भी अब मानने लगे हैं। इस्लाम और ईसाई धर्म में कयामत का दिन या इन्साफ़ के दिन की कल्पना बेबुनियाद है, समज़दार आदमी अब ऐसा मानने लगे हैं। हिन्दू धर्म ने तो शुरू से ही जीवन के सातत्व का सिद्धांत पेश किया है। अब दुनिया के अन्य धर्मों ने भी भारतीय धर्म की इस विशिष्टता को अपने में समाविष्ट करने का प्रयास किया है। जीवन के सातत्व का यह सिद्धांत सच्चा है। भारत के साधारण प्रजाजन भी इसे मानते हैं। यह सिद्धांत कल्पना नहीं है बल्कि वास्तविकता है। यह अनुभव के आधार पर निर्मित और सिद्ध हुआ है। इस बात को याद रखना चाहिए।

यह जीवन क्यों है? जीवन के पीछे कोई हेतु है या नहीं। बुद्धिमान लोग कहेंगे कि जीवन का प्रयोजन अवश्य है। इस संसार में प्रत्येक वस्तु का कुछ न कुछ उपयोग है। तब फिर जीवन का उपयोग न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसे सुंदर, मूल्यवान और बड़े जीवन के पीछे कोई हेतु या आदर्श न हो ऐसा नहीं हो सकता। सोचने पर पता चलता है कि जीवन निरंतर गतिशील है। जीवधारी मनुष्य सुख, शांति, समृद्धि एवं ज्ञान की पिपासा से कर्म करते हैं और जीते हैं। पुरुषार्थ करके मनुष्य तरक्की करता है और सुख, शांति, ज्ञान तथा समृद्धि भी प्राप्त करता है, फिर भी इन चीज़ों के लिए उसकी प्यास नहीं बुझती। यह प्यास कब बुझेगी? जब तृप्ति होगी, अथवा यों कहिए कि जब मनुष्य पूर्ण होगा तभी मिटेगी। जीवन का विकास पूरा होने पर ही शांति, समज और शक्ति की खोज पूरी होगी और तभी जीवन ध्येय की प्राप्ति होगी। आज तक कई मानवों ने उस ध्येय की प्राप्ति की है। और हम भी उस ध्येय की ओर हौले हौले चाहे जान चाहे अंजान में बढ़ रहे हैं। इस ध्येय को कोई पूर्णता कहता है तो कोई मुक्ति, कोई आत्मदर्शन कहता है तो कोई परमात्मा की प्राप्ति, कोई परम शांति या निर्वाण भी कहता है। गीता ब्राह्मी स्थिति नामक नये शब्द का प्रयोग करके उसका विस्तार से वर्णन करती है और उस स्थिति को प्राप्त पुरुष को स्थितप्रज्ञ की संज्ञा देती है। हमें नाम के साथ जगड़ा नहीं है। भिन्न भिन्न नामों के होते हुए भी एक बात याद रखने यग्य है कि जीवन विकास के लिए है। विकास करके पूर्णता प्राप्त करने के लिए है। और पूर्णता प्राप्त की जा सकती हैं। मानव जीवन का प्रयोजन और ध्येय यही है।

जीवन ध्येय को यदि हम स्वीकारते हैं तो यह बात भी माननी पड़ेगी की जब तक ध्येय पूरा नहीं होता तब तक जीवन भी पूरा नहीं होगा। ध्येय पूरा न हो तब तक जीवन जारी रहना चाहिए, यह बात भी आसानी से समज़ सकते हैं। नदी सागर से मिलती है। ऐसा मान लें तो यह भी मानना ही पड़ेगा कि बहते बहते अंत में सागर से मिल जायगी। नदी किनारे खड़े हों और समुद्र से दूर हों तो केवल इतना देखकर ही यह मानने की आवश्यकता नहीं कि नदी समुद्र से नहीं मिलेगी। सागर के पानी का बाष्पीभवन होता है और बादल बनता है। अंत में बादल बरसता है और बारिश होती है। सागर के निकट खड़ा हुआ आदमी यह बात जानता है। फिर वह अगर एक ही पल में बाष्प या बरसात की मांग करे तो उसे निराश होना पड़ेगा। बरसात के लिए धीरज को धारण करना होगा। जीवन भी पूर्णता के लिए है, यह सच है। किन्तु यह पूर्णता एक ही जीवन में मिल जायगी ऐसी बात नहीं है। उसके लिए एक जीवन भी पर्याप्त हो सकता है और अनेक जीवन भी धारण करने पड़ सकते हैं। इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। जीवन की सरिता न जाने कितने जन्म किनारों को स्पर्श करती हुई बहती रहेगी और विकास प्राप्त करेगी। किन्तु वह पूर्णता के सागर में अवश्य मिलेगी यह निश्चित है। जब तक पूर्णता नहीं मिलती एक जन्म के बाद दूसरा जन्म होता ही रहेगा।

अतः जन्मान्तर का सिद्धांत स्वतः फलित होता है और सच्चा साबित होता है। दूसरी बातों से भी इसको समर्थन मीलता है। सोचने से पता चलेगा कि आदमी जीवन में भले बुरे कार्य करते हैं। उन सबका फल उन्हें वर्तमान जीवन ही मिलता है ऐसा नहीं दिखाई देता। कुछ लोग अच्छे कार्य करते है फिर भी तमाम उम्र दुःखी दिखाई देते हैं, जब कि दूसरे बुरे कार्य करनेवाले व अनीति का आश्रय ग्रहण करनेवाले ऐश करते हुए दिखाई देते हैं। बुरे कार्य का बुरा फल उन्हें इसी जीवन में नहीं मिलता। अच्छे काम के लिए पुरुषार्थ करनेवाले की मेहनत अधूरी रह जाती है। अगर हम जन्मान्तर में विश्वास करें तो इन शंकाओं का उचित समाधान मिल जाता है। जन्मान्तर के सिद्धांत के पीछे नियम है, व्यवस्था है। कोई परिश्रम व्यर्थ नहीं जाता यह श्रद्धा जन्मान्तर के उपदेश से और ज्यादा मज़बूत होती है। हमारे पास अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान रखनेवाले महामानवों के भी दृढ एवं निश्चित सबूत हैं। क्योंकि इस सबूत के पीछे केवल तर्क नहीं बल्कि तजुर्बा है। अनुभवसिद्ध बात की सत्वता बढ़ ही जाती है।

इस अनुभव के उदाहरण गीता में जगह जगह पर है। इसी अध्याय में भगवान कहते हैं, “हे अर्जुन, तेरे और मेरे अनेक जन्म हो गए हैं। मैं परिपूर्ण हूँ, फिर भी अपनी इच्छा से और अपनी ही शक्ति से बारबार जन्म धारण करता हूँ।” जन्मान्तर की बात को सिद्ध करने के लिए किसी तर्क या दलीलबाज़ी का सहारा नहीं लेते बल्कि स्वानुभव की बात कहते हैं। गीता की यह एक महान विशेषता है। गीता इस तरह से कृष्ण भगवान की जीवन गाथा है। उसमें भगवान के जीवन की प्रतिध्वनि है। स्वानुभव की बात उन्होंने उपस्थित की है। कल्पना की उड़ान करने या केवल शुष्क विचार पेश करने की बजाय उन्होंने अपने अनुभव की भाषा का प्रयोग किया है। और अनुभव के आधार पर ही उन्होंने अर्जुन की सारी शंकाओं का समाधान करने का प्रयास किया है। यही कारण है कि उनका प्रयत्न सफल हुआ है। भगवान की यह विशेषता है। सच्चे गुरु या शिक्षक में एसी ही योग्यता होनी चाहिए। भगवान अपने एक दृष्टांत से बात स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि मनुष्यकों अनुभव के आधार पर चलना चाहिए। कथनी के अनुसार करनी होनी चाहिए और करनी के अनुसार कथनी होनी चाहिए। तभी उसका उद्देश्य सच्चा एवं प्रभावोत्पादक होगा। गीता का संदेश है कि जीवन में हमेशा अपने आत्मा और अनुभव को वफ़ादार रहना और यदि संसार के खिलाफ जाना पड़े फिर भी अनुभव के आधार पर ही बोलना, केवल तर्क का आश्रय मत लेना। विशेषतः आत्मिक रहस्य जानने के लिए और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए इसकी आवश्यकता है। शांति का आधार तर्कप्रधान बुद्धि नहीं बल्कि अनुभव है। इसमें संदेह नहीं।

अनुभव के आधार पर अर्जुन की शंका का समाधान करने के लिए क्यों जन्म लेना पड़ा। यह बात वे बताते हैं। मामूली आदमी कर्म के बंधन से बंधा हुआ है। उसकी इच्छा न होने पर भी उसे कर्म के प्रभाव से जन्म लेना ही पड़ता है। कर्म की शुरुआत करके जन्म और मरण के चक्र में घूमने का टिकट उसने ले ही लिया है। इसलिए जन्म और मरण की मुसाफिरी किये बिना उसके लिए कोई चारा नहीं। लेकिन परमेश्वर संसार के स्वामी हैं। उनको कर्म का कोई बंधन नहीं। फिर भी वे जन्म क्यों लेते हैं? गीतामाता इसका उत्तर देती है। जब जब धर्म की ग्लानि होती है और अधर्म फ़ैल जाता है तब भगवान जन्म लेते हैं और जन्म लेकर भक्तों तथा सज्जनों की रक्षा करते हैं और दुष्ट व अधर्मी मनुष्यों का विनाश करते हैं।

पुराने जमाने के राजा लोग रात को नगरचर्या करने निकल जाया करते थे, ऐसा कहा जाता है। ऐसा करने से उन्हें प्रजा के सुख दुःख का पता चलता था। किन्तु कभी कभी प्रजा के प्रश्नों को वे दूसरी रीति से भी मालूम करते थे। वे खुद तो महल ही में रहते किन्तु अपने विश्वासु आदमियों के द्वारा राज्य की माहिती प्राप्त करते थे। भवभूति के उत्तर रामचरित में इसी प्रथा की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। अयोध्या नगरी में प्रजा के सुख दुःख जानने के लिए राम ने दुर्मुख को भेजा। वह जब लौटा तो उसने बताया कि प्रजा के अमुक वर्ग में सीता की पवित्रता के लिए शंका उत्पन्न हुई है। उसकी बात सुनकर राम, सीता को वन में भेजने के लिए तैयार हो जाते हैं। ईश्वर भी इसी तरह अपने संसार की हालत जानने निकलते हैं। इतना ही नहीं बल्कि धर्म की पुनः स्थापना और भक्तों की रक्षा भी करते हैं। संसार में जब जब जरूरत होती है तब तब वे खुद प्रकट होते हैं, पर अधिकतर तो वे अपने दूत भेजते हैं और उन्हीं के द्वारा काम करवाते हैं। ईश्वर को पहचानकर ईश्वरमय बने हुए संतपुरुष ईश्वर के दूत हैं। और संसार में धर्म संस्थापना आदि कार्य ज्यादातर उनके हाथ से ही होता है। अथवा यों कहिए कि उनके द्वारा भगवान ही वह कार्य करते हैं। ऐसे महापुरुष युगपुरुष या अवतारी पुरुष कहलाते हैं। अतः ईश्वरमय हुए संतपरुषों में ईश्वर का विशेष प्रकाश व्याप्त होता है। उस आलोक-दर्शन करने की जरूरत है। ईश्वर और ऐसे संतों में कोई भेद नहीं है। उपनिषद भी इस बात का समर्थन करते हुए कहता है कि ब्रह्म को जाननेवाला ब्रह्म ही हो जाता है।

- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)